शनिवार, 26 जुलाई 2014

जय दादा गुरूदेव

जैन धर्म के सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार में पूर्वाचार्यों का पूर्ण योगदान रहा है! सभी गच्छों में महान आचार्य हुए है, जिन्होंने अपनी क्षमता बुद्धि-बल एवं तपोबल के आधार पर जिन शासन की महिमा फैलाई।
लेकिन दादा गुरुदेव केवल खरतर गच्छ में ही हुए बल्कि यों कहना चाहिए कि खरतरगच्छ के चार आचार्यों को ही दादा गुरुदेव का संबोधन मिला। अन्य गच्छों के महान आचार्यों के लिए कई अन्य विशेषण प्रयुक्त हुए। लेकिन दादा गुरुदेव का अर्थवान और लाडला संबोधन तो खरतरगच्छ के चार आचार्यों-जिनदत्तसुरिजी, मणिधारी जिनचंद्रसूरिजी, जिनकुशलसूरिजी और जिनचंद्रसूरिजी को ही प्राप्त हुआ है। 
श्री जिनदत्तसूरिजी आदि चार आचार्यों का जो उपकारक जीवन रहा है उसी के परिणाम स्वरूप उन्हें दादा गुरुदेव का संबोधन मिला।
अपने गुरुजनों की स्मृति में बनने वाले गुरु मंदिरों को गुरु मंदिर ही कहें, दादावाडी नहीं। समस्त भारत में दादावाडी का अर्थ यह सुप्रसिद्ध है कि यह जिनदत्तसूरिजी या मणिधारीजी या जिनकुशलसूरिजी का स्थान होगा।
समाज ने उनके दिव्य व्यक्तित्व एवं योगदान का जो मूल्यांकन किया, वही दादा गुरुदेव के संबोधन के रूप में अभिव्यक्त हुआ। आज सेंकडों वर्षों से स्थान-स्थान पर दादावाडियां उनकी पावन स्मृति में उनके प्रति —तज्ञता स्वरुप बनती आ रही है।
अजमेर की 800 वर्ष पुरानी दादावाडी, मालपुरा की 700 वर्ष प्राचीन दादावाडी, महरोली की 800 वर्ष प्राचीन दादावाडी, अहमदाबाद की 400 वर्ष प्राचीन दादावाडी आदि सैंकडों दादावाडियां आज ददागुरुदेव की गौरव गाथा गा रही है।
जय दादा गुरूदेव